मौर्य साम्राज्य Maurya samrajya

  1. मौर्य साम्राज्य Maurya samrajya
Maurya samrajya ki sthapna chandragupt Maurya ne ki thi chandragupt Maurya ne nand vansh ke shasak gananand tha jiski hatya takshila ke adhyapak kaushalya chanakya Vishnu ko chandragupt Maurya ki sahayata se 
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य नहीं की थी नंद वंश का अंतिम शासक धनानंद था जिसकी हत्या तक्षशिला के अध्यापक कौटिल्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य की सहायता से 323 मौर्य साम्राज्य भारत का प्रथम सम्राट था मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र मौर्य साम्राज्य का प्रधानमंत्री कौन था मौर्य साम्राज्य की जानकारी पुस्तक के लेखक चाणक्य या विष्णु गुप्ता 


चंद्रगुप्त मौर्य के राजा बनने के बाद 5 वर्ष बाद 317 में पंजाब जीता 315 में मगध को पुणे जी
संस्थापक।     मौर्य 
राजधानी।   मौर्य साम्राज्य की जानकारीपाटलिपुत्र 
Pm।        चाणक्य विष्णुपुर कौटिल्य
Book।     इंडिका मेगस्थनीज की पुस्तक
जैन धर्म की सिखा। गुरु भद्रबाहु 
सासनकल।    24 वर्षों का शासन काल सफलतापूर्वक
विबेभा।     करण वालिया हेलेना पुत्री सेल्यूकस निकेटर

सैनिक निकेटर में चंद्रगुप्त मौर्य को चार प्रांत दान में दिए नंबर एक का फूल दूसरा कंधार है रात चौथा मकरान दानिया जी मौर्य साम्राज्य भागवत पुराण में 10 राजाओं का उल्लेख मिलता है वायु पुराण में 9 राजाओं का उल्लेख मिलता है सेल्यूकस निकेटर का राजदूत मेगसनीज
इसने अपनी पुस्तक इंडिका लिखी प्लेटो के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस निकेटर को 500 हाथी दान में दिए थे चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में 40 निकेटर को हराया था चंद्रगुप्त मौर्य की दासता से मुक्ति दिलाई के अनुसार विश्व का राजनीतिक पर लिखा प्रत्यंगिरा प्रिंस ने केवली ने लिखा भारत का प्रथम मुक्तिदाता सीएम चंद्रगुप्त मौर्य था भारत की राजनीतिक पर लिखा प्रथम ग्रंथ अर्थशास्त्र है इसका टोटल यह 
पुस्तक अर्थशास्त्र अर्थशास्त्र जिसकी खोज 1905 में की ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य का वर्णन नहीं है तथा सम्राट शब्द का उल्लेख अकाल का उल्लेख 12 वर्षों का है 9 प्रकार के दोषों का उल्लेख है किस प्रकार के कार्य निक टैक्सों का उल्लेख प्रशासन की सहायता हेतु धारा 326 अध्यक्षों को लेकर चाणक्य चाणक्य 
पुस्तक इंडिका मेगस्थनीज की पुस्तक है फुल मून उपलब्ध नहीं है 1848 में डॉक्टर सवार बैंक में उसकी पहचान की इंडिका का संबंध मोदी काल की प्रशासन की जानकारी से मिलता है पुस्तक इंडिका में नाक से मिनांडर के बीच वार्तालाप का परिचय मिलता 
पुस्तक अर्थशास्त्र पुस्तक अर्थशास्त्र में शैली चंपू पर गंधार शैली है खोज 1905 में तंजौर का ब्राह्मण भट्टा स्वामी ने अधिकरण 150 प्राधिकरण 180 616 वे अध्याय मंडल योगी संविधान दैनिक कारण का वर्णन जनपद का वर्णन दूर का वर्णन सेना का वर्णन कोर्स का वर्णन अमृता मैडम और मित्र का वर्णन है 

जन्म345 ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र (अब बिहार में)
मृत्यु298 ईसा पूर्व (उम्र 47–48)
श्रवणबेलगोलाकर्नाटक
पदवीपियडंसन
पूर्वाधिकारीनंद साम्राज्य के धनानंद
उत्तराधिकारीसम्राट बिन्दुसार मौर्य
धार्मिक मान्यताजैन धर्म से मोक्ष प्राप्ति [1]
जीवनसाथीदुर्धरा और हेलेना (सेल्यूकस निकटर की पुत्री)
दफन जगहश्रवणबेलगोला कर्नाटक मैसूर चन्द्रगिरि पर्वत

मेगस्थनीज ने चार साल तक चन्द्रगुप्त की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवाएँ दी। ग्रीक और लैटिन लेखों में, चन्द्रगुप्त को क्रमशः सैण्ड्रोकोट्स और एण्डोकॉटस के नाम से जाना जाता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं। चन्द्रगुप्त के सिहासन सम्भालने से पहले, सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था, और 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह की वजह से आगे का अभियान छोड़ दिया, जिससे भारत-ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित भारतीय उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने सम्भाली। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है,.जो चन्द्र गुप्त के प्रधानमन्त्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धान्तों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।[11]

सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत धनानन्द द्वारा शासित था। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त ने नन्द वंश को समाप्त करने का निश्चय किया। अपनी उद्देश्यसिद्धि के निमित्त चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबन्ध किया। ब्राह्मण ग्रन्थों में 'नन्दोन्मूलन' का श्रेय चाणक्य को दिया गया है। अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भरती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों से करनी चाहिए। मुद्राराक्षस से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा पर्वतक से सन्धि की। चन्द्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कम्बोज, पारसीक तथा वह्लीक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सान्द्रोकोत्तस ने सम्पूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया। जस्टिन के मत से भारत चन्द्रगुप्त के अधिकार में था।

चन्द्रगुप्त ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सदृढ़ की। उसका यवनों के विरुद्ध स्वातन्त्यय युद्ध सम्भवतः सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरम्भ हो गया था। जस्टिन के अनुसार सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त भारत ने सान्द्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बन्धन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला। चन्द्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियान लगभग 323 ई.पू. में आरम्भ किया होगा, किन्तु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली होगी, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चन्द्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिन्ध के प्रान्त मिल गए।

बिरला मन्दिर, दिल्ली में एक शैल-चित्र

चन्द्रगुप्त मौर्य का महत्वपूर्ण युद्ध धनानन्द के साथ उत्तराधिकार के लिए हुआ। जस्टिन एवं प्लूटार्क के वृत्तों में स्पष्ट है कि सिकंदर के भारत अभियान के समय चन्द्रगुप्त ने उसे नन्दों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था, किन्तु किशोर चन्द्रगुप्त के व्यवहार ने यवनविजेता को क्रुद्ध कर दिया। भारतीय साहित्यिक परम्पराओं से लगता है कि चन्द्रगुप्त और चाणक्य के प्रति भी नन्दराजा अत्यन्त असहिष्णु रह चुके थे। महावंश टीका के एक उल्लेख से लगता है कि चन्द्रगुप्त ने आरम्भ में नन्दसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, किन्तु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमान्त प्रदेशों से आरम्भ हुए। अन्ततः उन्होंने पाटलिपुत्र घेर लिया और धनानन्द को मार डाला।

इसके बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया। मामुलनार नामक प्राचीन तमिल लेखक ने तिनेवेल्लि जिले की पोदियिल पहाड़ियों तक हुए मौर्य आक्रमणों का उल्लेख किया है। इसकी पुष्टि अन्य प्राचीन तमिल लेखकों एवं ग्रन्थों से होती है। आक्रामक सेना में युद्धप्रिय कोशर लोग सम्मिलित थे। आक्रामक कोंकण से एलिलमलै पहाड़ियों से होते हुए कोंगु (कोयम्बटूर) जिले में आए और यहाँ से पोदियिल पहाड़ियों तक पहुँचे। दुर्भाग्यवश उपर्युक्त उल्लेखों में इस मौर्यवाहिनी के नायक का नाम प्राप्त नहीं होता। किन्तु, 'वम्ब मोरियर' से प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का ही अनुमान अधिक संगत लगता है।

मैसूर से उपलब्ध कुछ अभिलेखों से चन्द्रगुप्त द्वारा शिकारपुर तालुक के अन्तर्गत नागरखण्ड की रक्षा करने का उल्लेख मिलता है। उक्त अभिलेख 14वीं शताब्दी का है किन्तु ग्रीक, तमिल लेखकों आदि के साक्ष्यों के आधार पर इसकी ऐतिहासिकता एकदम अस्वीकृत नहीं की जा सकती।

चन्द्रगुप्त ने सौराष्टकी विजय भी की थी। महाक्षत्रप रुद्रदामन्‌ के जूनागढ़ अभिलेख से प्रमाणित है कि वैश्य पुष्यगुप्त यहाँ के राज्यपाल थे।

चन्द्रगुप्त का अन्तिम युद्ध सिकंदर के पूर्वसेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट सेल्यूकस के साथ हुआ। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस, सिकंदर की भारतीय विजय पूरी करने के लिये आगे बढ़ा, किन्तु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक परिवर्तित हो चुकी थी। लगभग सारा षेत्र एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में था। सेल्यूकस 305 ई.पू. के लगभग सिन्धु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त की शक्ति के सम्मुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा। फलतः सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को विवाह में एक यवनकुमारी तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार), परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रान्त देकर संधि क्रय की। इसके बदले चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए। उपरिलिखित प्रान्तों का चन्द्रगुप्त मौर्य एवं उसके उततराधिकारियों के शासनान्तर्गत होना, कन्दहार से प्राप्त अशोक के द्विभाषी लेख से सिद्ध हो गया है। इस प्रकार स्थापित हुए मैत्री सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से सेल्यूकस न मेगस्थनीज नाम का एक दूत चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। यह वृत्तान्त इस बात का प्रमाण है कि चन्द्रगुप्त का प्रायः सम्पूर्ण राजयकाल युद्धों द्वारा साम्राज्यविस्तार करने में बीता होगा।

अंतिम श्रुतकेवाली भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चंद्रगुप्त का आगमन दर्शाता शिलालेख (श्रवणबेलगोला)

श्रवणबेलगोला से मिले शिलालेखों के अनुसार, चन्द्रगुप्त अपने अन्तिम दिनों में पितृ मतानुसार जैन-मुनि हो गए। चन्द्र-गुप्त अन्तिम मुकुट-धारी मुनि हुए, उनके बाद और कोई मुकुट-धारी (शासक) दिगंबर-मुनि नहीं हुए | अतः चन्द्र-गुप्त का जैन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। स्वामी भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोल चले गए। वहीं उन्होंने उपवास द्वारा शरीर त्याग किया। श्रवणबेलगोल में जिस पहाड़ी पर वे रहते थे, उसका नाम चन्द्रगिरी है और वहीं उनका बनवाया हुआ 'चन्द्रगुप्तबस्ति' नामक

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